विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् हिंदू धर्म का एक प्रसिद्ध और पवित्र स्तोत्र है, जिसमें भगवान विष्णु के दिव्य नामों का वर्णन किया गया है। यह महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर को उपदेश स्वरूप दिया गया था। इसे सुनने, पढ़ने और जपने से मनुष्य को मानसिक शांति, सकारात्मक ऊर्जा और जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के हर नाम का एक विशेष अर्थ और महत्व है, जैसे कि वे अनंत, अच्युत, गोविंद और मधुसूदन कहलाते हैं। यह स्तोत्र न केवल भक्ति का प्रतीक है, बल्कि योग और ध्यान का भी एक सशक्त माध्यम है। इसे नित्य पाठ करने से पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह स्तोत्र सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए सरल और प्रभावशाली है।
Shri Vishnu Sahasranama Stotram
॥ पूर्वपीठिका ॥
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ १ ॥
यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परश्शतम् ।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २ ॥
व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३ ॥
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४ ॥
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५ ॥
यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६ ॥
ओं नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।
श्रीवैशम्पायन उवाच ।
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७ ॥
युधिष्ठिर उवाच ।
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८ ॥
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९ ॥
श्री भीष्म उवाच ।
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १० ॥
तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।
ध्यायन् स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११ ॥
अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ १२ ॥
ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३ ॥
एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४ ॥
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५ ॥
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ १६ ॥
यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ १७ ॥
तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥ १८ ॥
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ १९ ॥
ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ।
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ २० ॥
अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः ।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियुज्यते ॥ २१ ॥
विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ।
अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम् ॥ २२ ॥
अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्र महामन्त्रस्य श्री वेदव्यासो भगवानृषिः अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता, अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम्, देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः, उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः, शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम्, शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम्, रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम्, त्रिसामा सामगस्सामेति कवचम्, आनन्दं परब्रह्मेति योनिः, ऋतुस्सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः, श्री विश्वरूप इति ध्यानम्, श्रीमहाविष्णु प्रीत्यर्थे सहस्रनाम जपे विनियोगः ॥
ध्यानम् ।
क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकते मौक्तिकानां
मालाक्लुप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूषवर्षै-
-रानन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदाशङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १ ॥
भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावासाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवनवपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २ ॥
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाकारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिहृद्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३ ॥
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं
श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं
विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४ ॥
** अधिकश्लोकं –
नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५ ॥
**
सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलशोभिकौस्तुभं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥ ६ ॥
** अधिकश्लोकं –
छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलङ्कृतम् ।
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७ ॥
**
स्तोत्रम्
हरिः ओं
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १ ॥
जो खुद में ब्रह्मांड हों, जो हर जगह विद्यमान हों, जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता हो, भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी, सब जीवों के निर्माता, सब जीवों के पालनकर्ता, भावना, सब जीवों के परमात्मा, सब जीवों की उत्पत्ति और पालन के आधार।
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमागतिः ।
अव्ययः पुरुषस्साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २ ॥
पवित्रात्मा, सभी आत्माओं के लिए पहुंचने वाले आंतिम लक्ष्य, अविनाशी, पुरुपुषोत्तम, बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, क्षेत्र अर्थात समस्त प्रकृति रूप शरीर को जानने वाले, कभी क्षीण न होने वाले
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३ ॥
जिसे योग द्वारा पाया जा सके, योग को जानने वाले योगवेत्ताओं के नेता, प्रकृति और पुरुष के स्वामी, मनुष्य और सिंह दोनों के जैसे शरीर धरण करने वाले नरसिंह स्वरूप, जिसके वक्ष स्थल में सदा श्री बसती है, जिसके केश सुंदर हों, पुरुषों में उत्तम।
सर्वश्शर्वश्शिवस्स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४ ॥
हमेशा सब कुछ जानने वाले, विनाशकारी या पवित्र, सदा शुद्ध, स्थिर सत्य, पंच तत्वों के आधार, अविनाशी निधि, अपनी इच्छा से उत्पन्न होने वाले, समस्त संसार का पालन करने वाले, पंच महाभूतों को उत्पन्न करने वाले, सर्व शक्तिमान भगवान्, जो बिना किसी के सहायता के कुछ भी कर सकते हैं।
स्वयम्भूश्शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५ ॥
जो सबके ऊपर और स्वयं होते हैं, भक्तों के लिए सुख की भावना की उत्पत्ति करने वाले हैं, अदिति के पुत्र (वामन), जिनके नेत्र कमल के समान हैं, अति महान स्वर या घोष वाले, जिनका आदि और निधन दोनों ही नहीं है, शेष नाग के रूप में विश्व को धारण करने वाले, कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, अनंतादि अथवा सबको धारण करने वाले हैं।
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६ ॥
जिन्हें जाना न जा सके, इन्द्रियों के स्वामी, जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप पद्म स्थित है, देवता जो अमर हैं उनके स्वामी, विश्व जिसका कर्म अर्थात क्रिया है, मनन करने वाले, अतिशय स्थूल, प्राचीन एवं स्थिर।
अग्राह्यश्शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७ ॥
जो कर्मेन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते, जो सब काल में हों, जिसका वर्ण श्याम हो, जिनके नेत्र लाल हों, जो प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करते हैं, जो ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से संपन्न हैं, ऊपर, नीचे और मध्य तीनों दिशाओं के धाम हैं, जो पवित्र करें, जो सबसे उत्तम हैं और समस्त अशुभों को दूर करते हैं।
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८ ॥
सर्वभूर्वतों के नियंता, जो सदा जीवित हैं, सबसे अधिक वृद्ध या बड़े हैं, सबसे प्रशंसनीय, ईश्वररूप से सब प्रजाओं के पति, ब्रह्माण्डरूप अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले, पृथ्वी जिनके गर्भ में स्थित है, मां अर्थात लक्ष्मी के धव अर्थात पति, मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥ ९ ॥
सर्वशक्तिमान, धनुष धारण करने वाले, बहुत से ग्रंथों को धारण करने का सामर्थ्य रखने वाले, जगत को लांघ जाने वाले या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, क्रमण (लांघना, दौड़ना) करने वाले या क्रम (विस्तार) वाले, जिससे उत्तम और कोई न हो, जो दैत्यादिकों से दबाया न जा सके, प्राणियों के किए हुए पाप पुण्यों को जानने वाले, सर्वात्मक, अपनी ही महिमा में स्थित होने वाले।
सुरेशश्शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहस्संवत्सरो व्यालः प्रत्ययस्सर्वदर्शनः ॥ १० ॥
देवताओं के ईश, दीनों का दुख दूर करने वाले, परमानन्दस्वरूप, विश्व के कारण, जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है, प्रकाश स्वरूप, कालस्वरूप से स्थित हुए, व्याल (सर्प) के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले, प्रतीति रूप होने के कारण, सर्व स्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र हैं।
अजस्सर्वेश्वरस्सिद्धस्सिद्धिस्सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिस्सृतः ॥ ११ ॥
अजन्मा, ईश्वरों का भी ईश्वर, नित्य सिद्ध, सर्व भूतों के आदि कारण, अपनी स्वरूप शक्ति से च्युत न होने वाले, वृष (धर्म) रूप और कपि (वराह) रूप, जिनके आत्मा का परिच्छेद न किया जा सके, सम्पूर्ण संबंधों से रहित।
वसुर्वसुमनास्सत्यस्समात्मा सम्मितस्समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२ ॥
जो सब भूतों में बसते हैं और जिनमें सब भूत बसते हैं, जिनका मन प्रशस्त (श्रेष्ठ) है, सत्य स्वरुप, जो राग द्वेषादि से दूर हैं, समस्त पदार्थों से परिच्छिन्न, सदा समस्त विकारों से रहित, जो स्मरण किए जाने पर सदा फल देते हैं, हृदयस्थ कमल में व्याप्त होते हैं, जिनके कर्म धर्म रूप हैं, जिन्होंने धर्म के लिए ही शरीर धारण किया है।
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिश्शुचिश्रवाः ।
अमृतश्शाश्वतस्स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३ ॥
दुख को दूर भगाने वाले, बहुत से सिरों वाले, लोकों का भ्रमण करने वाले, विश्व के कारण, जिनके नाम सुनने योग्य हैं, जिनका मृत अर्थात मरण नहीं होता, जिनका आरोह (गोद) वर (श्रेष्ठ) है, जिनका तप महान है।
सर्वगस्सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ॥ १४ ॥
जो सर्वत्र व्याप्त हैं, जो सर्ववित् हैं और भानु भी हैं, जिनके सामने कोई सेना नहीं टिक सकती, दुष्टजनों को नरकादि लोकों में भेजने वाले, वेदरूप, वेद जानने वाले, जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा न हो, वेद जिनके अंगरूप हैं, वेदों को विचारने वाले, सबको देखने वाले।
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दम्ष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५ ॥
समस्त लोकों का निरीक्षण करने वाले, सुरों (देवताओं) के अध्यक्ष, धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले, कार्य रूप से कृत और कारणरूप से अकृत, चार पृथक विभूतियों वाले, चार व्यूहों वाले, चार दाढ़ों या सींगों वाले, चार भुजाओं वाले।
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६ ॥
एकरस प्रकाशस्वरूप, प्रकृति रूप भोज्य माय, दैत्यों को भी सहन करने वाले, जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले, जिनमें अघ (पाप) न हो, विजय ज्ञान, वैराग्य व ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले, समस्त भूतों को जीतने वाले, विश्व और योनि दोनों वही हैं, बार बार शरीरों में बसने वाले।
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघश्शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रस्सङ्ग्रहस्सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७ ॥
अनुज रूप से इंद्र के पास रहने वाले, भली प्रकार भजने योग्य हैं, तीनों लोकों को लांघने के कारण प्रांशु (ऊंचे) हो गए, जिनकी चेष्टा मोघ (व्यर्थ) नहीं होती, स्मरण करने वालों को पवित्र करने वाले, अत्यंत बलशाली, जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे हों, प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले, जगत रूप और जगत का कारण, अपने स्वरुप को एक रूप से धारण करने वाले, प्रजा को नियमित करने वाले, अन्तः करण में स्थित होकर नियम करने वाले।
वेद्यो वैद्यस्सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८ ॥
कल्याण की इच्छा वालों द्वारा जानने योग्य, सब विद्याओं को जानने वाले, धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओं को मारते हैं, विद्या के पति, मधु (शहद) के समान प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, इन्द्रियों से परे, मायावियों के भी स्वामी, जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले, सर्वशक्तिमान।
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृत् ॥ १९ ॥
सर्वबुद्धिमान, संसार के उत्पत्ति का रणरूप, अति महानशक्ति और सामर्थ्य के स्वामी, जिनकी बाह्य और अंतर दयुति (ज्योति) महान है, जिसे बताया न जा सके, जिनमें श्री हैं, जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय (अनुमान न की जा सकने योग्य) है, मंदराचल और गोवर्धन पर्वतों को धारण करने वाले।
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासस्सतांगतिः ।
अनिरुद्धस्सुरानन्दो गोविन्दो गोविदांपतिः ॥ २० ॥
जिनका धनुष महान है, प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, श्री के निवास स्थान, संतजनों के पुरुषार्थ धन हेतु, प्रादुर्भा के समय किसी से निरुद्ध न होने वाले, सुरों (देवताओं) को आनंदित करने वाले, गौ (वाणी) पति।
मरीचिर्दमनो हंसस्सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभस्सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥ २१ ॥
तेजस्वियों के परम तेज, राक्षसों का दमन करने वाले, संसार भय को नष्ट करने वाले, धर्म और अधर्म रूप सुंदर पंखों वाले, भुजाओं से चलने वालों में उत्तम, हिरण्य (स्वर्ण) के समान नाभि वाले, सुंदर तप करने वाले, पद्म के समान सुंदर नाभि वाले, प्रजाओं के पिता।
अमृत्युस्सर्वदृक्सिंहस्सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणश्शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥ २२ ॥
जिसकी मृत्यु न हो, प्राणियों के सब कर्म आदि को देखने वाले, हनन करने वाले हैं, मनुष्यों को उनके कर्मों के फल देते हैं, फलों के भोगने वाले हैं, सदा एक रूप हैं, भक्तों के ह्रदय में रहने वाले और असुरों का संहार करने वाले, दानवादिकों से सहन नहीं किए जा सकते, श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते हैं, सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेष रूप से श्रवण करने वाले, सुरों (देवताओं) के शत्रुओं को मारने वाले।
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यस्सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषस्स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥ २३ ॥
सब विद्याओं के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता, परम ज्योति, सत्य-भाषणरूप, धर्मस्वरूप, जिनका पराक्रम सत्य अर्थात अमोघ है, जिनके नेत्र योगनिद्रा में मूंदे हुए हैं, मत्स्यरूप या आत्मारूप, वैजयंती माला धारण करने वाले, विद्या के पति, सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले।
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षस्सहस्रपात्॥
अनुवाद:
वे अग्रणी (सबसे आगे चलने वाले), ग्रामों के नेता, श्रीमान, न्यायस्वरूप, सबका संचालन करने वाले, वायु जैसे गतिशील, हजारों सिरों वाले, सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, हजारों नेत्रों वाले और हजारों पैरों वाले हैं।
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतस्सम्प्रमर्दनः।
अहस्संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः॥
अनुवाद:
वे संसार के चक्र को घुमाने वाले, आत्मा में लीन, आत्मज्ञान से आवृत, दुष्टों को मर्दन करने वाले, दिन के समान प्रकाशित, प्रलयकाल में सब कुछ समेटने वाले, अग्निरूप, वायुस्वरूप और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वसृड्विश्वभुग्विभुः।
सत्कर्ता सत्कृतस्साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः॥
अनुवाद:
वे अत्यंत प्रसन्न चित्त, समस्त सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और सर्वव्यापक हैं। वे सच्चे कर्ता, सत्पुरुषों द्वारा पूजित, सज्जनों के संरक्षक, जाह्नवी के रोकने वाले, नारायण और नररूप हैं।
असङ्ख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टश्शिष्टकृच्छुचिः।
सिद्धार्थस्सिद्धसङ्कल्पस्सिद्धिदस्सिद्धिसाधनः॥
अनुवाद:
वे असंख्य गुणों से युक्त, असीम आत्मा, विशेष, श्रेष्ठों को उत्पन्न करने वाले, पवित्र, सिद्ध अर्थ को पाने वाले, इच्छानुसार सिद्धि देने वाले और सिद्धि के उपाय स्वरूप हैं।
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः॥
अनुवाद:
वे धर्म (वृष) के स्वामी, धर्मस्वरूप, विष्णु, धर्म के मार्ग पर चलने वाले, धर्म के भंडार, सदा वर्धमान, सब से अलग, और वेदों के समुद्र हैं।
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥
अनुवाद:
वे सुंदर भुजाओं वाले, जिसे कोई धारण नहीं कर सकता, वाग्मिता से युक्त, देवताओं के राजा, सम्पत्ति देने वाले, स्वयं सम्पत्ति स्वरूप, अनेक रूपों वाले, विराट रूपधारी, अग्निरूप और प्रकाशस्वरूप हैं।
ओजस्तेजो द्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
ऋद्धस्स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः॥
अनुवाद:
वे ओजस्वी, तेजस्वी, ज्योति से युक्त, प्रकाश स्वरूप आत्मा, ऊष्मा देने वाले, समृद्ध, स्पष्ट उच्चारण वाले, मन्त्रस्वरूप, चन्द्रमा के समान शीतल और सूर्य की तरह प्रज्वलित हैं।
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुस्सुरेश्वरः।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः॥
अनुवाद:
वे अमृत रूप चन्द्रमा से उत्पन्न हुए हैं, सूर्य के समान तेजस्वी हैं, चन्द्रमा के कलंक के समान प्रतीकचिह्न हैं, देवताओं के स्वामी हैं, संपूर्ण संसार के लिए औषधि स्वरूप हैं, संसार को जोड़ने वाले सेतु हैं और सत्य धर्म में अत्यंत पराक्रमी हैं।
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोनलः।
कामहा कामकृत्त्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः॥
अनुवाद:
वे भूत (अतीत), भविष्य और वर्तमान के स्वामी हैं। वे वायुस्वरूप, सबको पवित्र करने वाले, अग्निरूप, कामनाओं का नाश करने वाले, इच्छाओं को देने वाले, आकर्षण के स्रोत, प्रेमस्वरूप और सर्वशक्तिमान प्रभु हैं।
युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः।
अदृष्टो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित्॥
अनुवाद:
वे युगों की रचना करने वाले, युगों का चक्र चलाने वाले, अनेक मायाओं के स्वामी, महान भक्षक (प्रलयकाल में सब कुछ निगलने वाले), अदृश्य, प्रकट रूप धारण करने वाले, हजारों को जीतने वाले और अनंत को भी जीतने वाले हैं।
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहाक्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः॥
अनुवाद:
वे सबके प्रिय हैं, सभी से श्रेष्ठ हैं, श्रेष्ठजनों के द्वारा पूज्य हैं, शिखंडी धारण करने वाले (कृष्ण), नहुष के समान तेजस्वी, धर्मस्वरूप, क्रोध का नाश करने वाले, क्रोध के कारणों को उत्पन्न करने वाले, कर्ता, सम्पूर्ण विश्व के रक्षक और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।
अपांनिधिरधिष्ठानमपारो प्रतिष्ठितः॥
अनुवाद:
वे अच्युत (अविनाशी), प्रसिद्ध, प्राणस्वरूप, प्राणों को देने वाले, इन्द्र के छोटे भाई (वामन रूप), जल का भंडार, सम्पूर्ण जगत का अधार, असीम और मित भाषण करने वाले हैं।
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥
अशोकस्तारणस्तारः शूरश्शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलश्शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७ ॥
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भश्शरीरभृत् ।
महर्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८ ॥
अतुलश्शरभो भीमस्समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९ ॥
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरस्सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४० ॥
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१ ॥
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टश्शुभेक्षणः ॥ ४२ ॥
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।
वीरश्शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३ ॥
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भश्शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४ ॥
ऋतुस्सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रस्संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५ ॥
विस्तारस्स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६ ॥
अनिर्विण्णस्स्थविष्ठो भूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामस्समीहनः ॥ ४७ ॥
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुस्सत्रं सतांगतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८ ॥
सुव्रतस्सुमुखस्सूक्ष्मः सुघोषस्सुखदस्सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९ ॥
स्वापनस्स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५० ॥
धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् । [**सदक्षरमसत्क्षरम्**]
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१ ॥
गभस्तिनेमिस्सत्त्वस्थस्सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२ ॥
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३ ॥
सोमपोऽमृतपस्सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयस्सत्यसन्धो दाशार्हस्सात्त्वताम्पतिः ॥ ५४ ॥
जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥ ५५ ॥
अजो महार्हस्स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दस्सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६ ॥
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७ ॥
महावराहो गोविन्दस्सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८ ॥
वेधास्स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढस्सङ्कर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥ ५९ ॥
भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यस्सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६० ॥
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१ ॥
त्रिसामा सामगस्साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
सन्न्यासकृच्छमश्शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२ ॥
शुभाङ्गश्शान्तिदस्स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३ ॥
अनिवर्ती निवृत्तात्मा सङ्क्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥ ६४ ॥
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान् लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५ ॥
स्वक्षस्स्वङ्गश्शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६ ॥
उदीर्णस्सर्वतश्चक्षुरनीशश्शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकश्शोकनाशनः ॥ ६७ ॥
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८ ॥
कालनेमिनिहा वीरश्शौरिश्शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९ ॥
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७० ॥
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद्ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१ ॥
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२ ॥
स्तव्यस्स्तवप्रियस्स्तोत्रम् स्तुतिस्स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३ ॥
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४ ॥
सद्गतिस्सत्कृतिस्सत्ता सद्भूतिस्सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठस्सन्निवासस्सुयामुनः ॥ ७५ ॥
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदोऽदृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥ ७६ ॥
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तश्शतमूर्तिश्शताननः ॥ ७७ ॥
एको नैकस्स्तवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८ ॥
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमश्शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९ ॥
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत् ।
सुमेधा मेधजो धन्यस्सत्यमेधा धराधरः ॥ ८० ॥
तेजोवृषो द्युतिधरस्सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१ ॥
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२ ॥
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३ ॥
शुभाङ्गो लोकसारङ्गस्सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४ ॥
उद्भवस्सुन्दरस्सुन्दो रत्ननाभस्सुलोचनः ।
अर्को वाजसनश्शृङ्गी जयन्तस्सर्वविज्जयी ॥ ८५ ॥
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यस्सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६ ॥
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृतांशोऽमृतवपुस्सर्वज्ञस्सर्वतोमुखः ॥ ८७ ॥
सुलभस्सुव्रतस्सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८ ॥
सहस्रार्चिस्सप्तजिह्वस्सप्तैधास्सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९ ॥
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतस्स्वास्थ्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९० ॥
भारभृत्कथितो योगी योगीशस्सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१ ॥
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितस्सर्वसहो नियन्ता नियमो यमः ॥ ९२ ॥
सत्त्ववान् सात्त्विकस्सत्यस्सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ॥ ९३ ॥
विहायसगतिर्ज्योतिस्सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विलोचनस्सूर्यस्सविता रविलोचनः ॥ ९४ ॥
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णस्सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५ ॥
सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदस्स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६ ॥
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगश्शब्दसहः शिशिरश्शर्वरीकरः ॥ ९७ ॥
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८ ॥
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुस्स्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणस्सन्तो जीवनं पर्यवस्थितः ॥ ९९ ॥
अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १०० ॥
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीस्सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१ ॥
आधारनिलयो धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगस्सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२ ॥
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३ ॥
भूर्भुवस्स्वस्तरुस्तारस्सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४ ॥
यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५ ॥
आत्मयोनिस्स्वयञ्जातो वैखानस्सामगायनः ।
देवकीनन्दनस्स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६ ॥
शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यस्सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७ ॥
[** श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ओं नम इति । **]
॥ उत्तरपीठिका ॥
श्री भीष्म उवाच ।
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाऽशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २ ॥
वेदान्तगो ब्राह्मणस्स्यात् क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धस्स्याच्छूद्रस्सुखमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाः ॥ ४ ॥
भक्तिमान् यस्सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५ ॥
यशः प्राप्नोति विपुलं याति प्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६ ॥
न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७ ॥
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८ ॥
दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९ ॥
वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११ ॥
इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मा सुखक्षान्ति श्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२ ॥
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः ।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३ ॥
द्यौस्सचन्द्रार्कनक्षत्रं खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४ ॥
स सुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५ ॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिस्सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६ ॥
सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पितः ।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७ ॥
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८ ॥
योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याश्शिल्पादि कर्म च ।
वेदाश्शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ १९ ॥
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रीन्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २० ॥
इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१ ॥
विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२ ॥
न ते यान्ति पराभवम् ओं नम इति ।
अर्जुन उवाच ।
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३ ॥
श्री भगवानुवाच ।
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोऽहमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४ ॥
स्तुत एव न संशय ओं नम इति ।
व्यास उवाच ।
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं ते जगत्त्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ओं नम इति ।
पार्वत्युवाच ।
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६ ॥
ईश्वर उवाच ।
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ २७ ॥
श्रीरामनाम वरानन ओं नम इति ।
ब्रह्मोवाच ।
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः ॥ २८ ॥
सहस्रकोटीयुगधारिणे ओं नम इति ।
सञ्जय उवाच ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९ ॥
श्री भगवानुवाच ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३० ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ३१ ॥
आर्ता विषण्णाश्शिथिलाश्च भीताः
घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं
विमुक्तदुःखास्सुखिनो भवन्ति ॥ ३२ ॥
[** अधिकश्लोकाः –
यदक्षर पदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेस्स्वभावात् ।
करोमि यद्यत्सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयामि ॥
**]
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां अनुशासनपर्वान्तर्गत अनुशासनिकपर्वणि मोक्षधर्मे भीष्म युधिष्ठिर संवादे श्री विष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम् नाम एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।
॥ इति श्रीविष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् ॥
*****
श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् के फायदे
शास्त्रों के अनुसार यह माना गया है कि जो भी व्यक्ति इस स्त्रोत का पाठ गुरुवार को करता है उस व्यक्ति के सारे पापों का नाश होता है और वह व्यक्ति अपने जीवन में सफ़ल हो जाता है। हम सब यह जानते है कि भगवान विष्णु को इस जग का पालन हार माना जाता है और जो भी व्यक्ति भगवान विष्णु की शरण में जाता है उस व्यक्ति को सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों के अनुसार यह भी माना जाता है कि विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के एक हज़ार नामो का वर्डन किया गया है। भगवान विष्णु का पाठ करने के लिए ज्यादा नियम विधि विधान की जरूरत नहीं होती है बल्कि मन में श्राद्ध होनी चाहिए।
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Shri Vishnu Sahasranama Stotram को हमने ध्यान पूर्वक लिखा है, फिर भी इसमे किसी प्रकार की त्रुटि दिखे तो आप हमे Comment करके या फिर Swarn1508@gmail.com पर Email कर सकते है।