नामु तेरो आरती भजनु मुरारे |हरि के नाम बिनु झूठे सगल पसारे || रहउ०
नाम तेरा आसानी नाम तेरा उरसा,नाम तेरा केसरो ले छिटकारे |
नाम तेरा अंभुला नाम तेरा चंदनोघसि,जपे नाम ले तुझहि कउ चारे |
नाम तेरा दीवा नाम तेरो बाती,नाम तेरो तेल ले माहि पसारे |
नाम तेरे की जोति जलाई,भइओ उजिआरो भवन समलारे |
नाम तेरो तागा नाम फूल माला,भार अठारह सगल जुठारे |
तेरो किया तुझही किया अरपउ,नामु तेरा तुही चंवर ढोलारे |
दस अठा अठसठे चार खाणी,इहै वरतणि है संगल संसारे |
कहै रविदास नाम तेरो आरती,सतिनाम है हरि भोग तुम्हारे |
गुरू रविदास सन्ध्या आरती
ओंह संध्या आरती अमृत वाणी, पूर्ण ब्रह्म लियो पहचानी।।
अलख पुरूष की शब्द निशानी, सतगुरू रविदास कथा बखानी।।
तीन देव मिल आरती साजे, अनहद शब्द शंख धुन बाजै।।
ओहं ज्योति सब मिल ही ठानी, समझे कोई बिरला ब्रह्म ज्ञानी।।
अन्धी दुनिया हुई दिवानी, साहेब छोड़, जम हाथ बिकानी।।,
जिन-जिन हमरा शब्द पहचाना, तोड़ दिया जम् दूत का थाना।।
सत्य शब्द का करो ध्याना, कहे रविदास सन्त सुजाना।। (2)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
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ओहं शब्द सुमरे रविदासा, सुमरण कीजो धरनी आकाशा।।
सुमरण पावक, पवन, अरू, पानी, सुमरण सन्तों चारो खानी।।
सुमरण चन्द्र, सूर्य और तारा, सुमरण राम, कृष्ण अवतारा ।।
सुमरण शेष, महेष, ब्रह्मादिक, सुमरण मुनि ध्यानी सिद्ध साधिक।।
सुमरण कछ, मछ , धौलसो नाग, जिन सुमरे तिन पूर्ण भाग।।
सुमरण कीनो ध्रुव प्रहलाद, पदवी पाई अगम अगाध।।
सुमर-सुमर भरपूर भये, ब्रह्म रूप पहुँच हजूर गये।।
दास रविदास सुमरू कीना, सुमरत-सुमरत आत्मरस पीना।।(3)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
संन्ध्या आरती सन्त रविदासा, पाँच तत्व मुख वेद प्रकाशा।
पृथ्वी वायु तेज सो पानी, पंचम आकाश लियो पहचानी।।
इन पाँचों से रहता न्यारा, देखो सन्तो पाठ द्वारा।।
गगन-मण्डल जिन कियो स्थाना, सन्त पुरूष देखों धर ध्याना।
कोट ब्रह्म जहाँ कथा बखाना, कोट-कोट विष्णु भगवाना।
कोठ इन्द्र विनती कर जोडी, और देवता ताहि तीन करोडी।।
सर्व देव मिल मता उपावै, संत संगत कर भव तिर जावै।।
दास रविदास आरती गाँवै, सब सन्तों को शीश निवावै।। (4)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं सन्ध्या आरती कर गुरू सेवा, खोल कपाट मिले गुरू देवा।
खुल गया सुषमना कंुजी ताला, बंक नाल में कियो उजाला।।
गगन मंडल जहाँ आरती साजे, सोहं हँसा नितानित जागै।।
अनहद शब्द शंख धुन बाजे, अलख पुरूष तहाँ आन बिराजै।।
सफेद सिंहासन शब्द विचारा, सत्नाम सोहं करतारा।।
सत्-चित् परम आनन्दा, भया प्रकाश सूर्य चन्दा।।
पवन शब्द कीनो प्रकाशा, आरती गावै संत रविदासा।। (5
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
कैसे आरती करू तुम्हारी, मल, मूत्र की काया हमारी।।
मैल से उपजाया ये शरीरा, कैसे गुण गावें गुरू गम्भीरा।।
उठे दुरगंध दसवे द्वारा, कैसे आवे निकट बलिहारा।।
तन मैला मन मैला होई, सत्य स्वामी कैसे कर धोई।।
जब तुमने कीनी प्रतिपाला, आन कियो घट में उजियाला।।
हाँड माँस और चाम का चोला, अमी सरोवर दिया झकोला।।
सतगुरू जब हुए दयाला, आय करी हमारी प्रतिपाला।।
अगम भेद रविदास विचारा, सत्नाम सोंहं करतारा।।(6)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
आदि निरंजन का करो ध्याना, मिल गये सतगुरू संत सुजाना।
सत्य शब्द को चीनी भाई, देहै दिंढोरा संत सिपाही।।
जमका त्रास निकट नहीं आई, आत्मा आनन्द में रहे समाई।।
ओहं पूर्ण सतगुरू मिले दयाला, कट गया जम का काल जँजाला।।
दो मनकियों की दीनी माला, दूत भूत का तोडे ताला।।
माया मोह का जीता पाला, जन्म मरण से भया निराला।।
छूट गया सब काल अकाला, कृपा भई जगत उजियाला।।
कहे रविदास अमर घर डेरा, मेट दिया चौरासी का फेरा।। (7)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं नाम निरगुन की बानी, समझे कोई बिरला ब्रह्मज्ञानी।।
समझ-समझ कर मुक्ति पावै, काल फाँस के बीच न आवै।।
ऐसी करे युक्ति प्रमान, मिट जाये सब मान अभिमान।।
सत्य की शिला शब्द का मुन्दर, चित चाम को छेद करे सुन्दर।।
सुरत की सुई निरत का डोरा, ध्यान का तुन निश्चय कर जोड़ा।
शील की राँपी ज्ञान का काँटा, चाम की पन्नी प्रेम का टाँका।।
चले दुकान अरस बे मोली, काशी में निर्भय हो खोली।।
यह दुकान हमारे मन मानी, दास रविदास कहे ब्रह्मज्ञानी। (8)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं शब्द रविदास रमन्ते, करत युक्ति सत् उपजन्ते।।
दया की घोडी प्रेम का भरना, काशी काया में ऐसे करना।।
सेवा में तन,मन प्रेम बानी, साधु संत को भोजन पानी।।
पड़ित नित जलते अभिमानी, कर्म, काँड की सार न जानी।।
अहंकारी नित पावत क्लेशा, जाति-पाँति का करत उपदेशा।।
ब्रह्म भान में कुछ सुझे नाही, आवत जावत है जगमाही।।
ऐसी क्रिया नित हमारी, दास रविदास, कहे ब्रह्मज्ञानी।। (9)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओंकार कुदरत निरंकारी, सब में खैले आप खिलारी।।
ना सरभंगी ना ब्रह्मचारी, नहीं पुरूष ना सुखिया नारी।।
नहीं ज्ञानी ना ध्यानी भाई, नहीं मूर्ख ना चतुर कहाई।।
नहीं बालक नहीं वृद्ध कहांवे, रूप न रेख दृष्टि न आवै।।
नहीं वह जंगम ना वह योगी, आपने आप रसना रस भोगी।
सर्वव्यापी है सबसे न्यारा, ऐसी लीला है अपरमपारा।।
ज्योति स्वरूप आप गिरधारी, दास रविदास कहै ब्रह्मचारी।। (10)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओंकार सर्व घट वासी, अचल, अमर निश्चल अविनासी।।
जाका-आदि अन्त नहीं पाई, वेद कुरान सब भेद बताई।
एक बिना जपू नहीं दूजा, और करू में किसकी पूजा।।
वो ही राम है, वो ही करीमा, हिन्दु तुरक जाति नहीं जीमा।।
कैसे जाँनू जाति कुजाति, ब्रह्म घट बिन्दु से उत्पाति।।
भेष अनेक एक है स्वामी, सब घट-घट के अन्तर्यामी।।
अलख पुरूष आप गिरधारी दास रविदास कहे ब्रह्मचारी।। (11)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं ब्राह्मण सो ब्रह्म पहचाने, सब जीवों में एको जाने।।
ब्राह्मण कहके भूलिया भाई, उत्तम ब्रह्म की सार न पाई।।
ब्राह्ममण, क्षत्रिय, वैश्य ना शुद्रा, एक ही माया रची जग मुद्रा।।
सब में लहू नहीं को दूध, भई जीव अहंकारी बूध।।
जाति,कुजाति, वरण नहीं कोई, आदि जुगादि एक सत् सोई।।
पाँच तत्व का पुतला भाई, अलख पुरूष सब मांहि समाई।।
राम जपै सो राम का प्यारा, कहै रविदास नहीं जाति विचारा।। (12)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
सभी चमार जो जिया जून कहाता, चेतन ब्रह्म चाम में ही रहता।।
सभी चमार है चोला चाम का, भजन बिना कुछ नहीं काम का।।
चेतन चाम से होवत न्यारा, सभी ठाट माटी का सारा।।
चाम की उत्पत्ति चाम व्यवहारा, कौन रे पड़ित चाम से न्यारा।।
चाम के घोडे़ चाम के हाथी, सभी कुटुम्ब चमार के साथी।।
पंड़ित कहके हुए अभिमानी, पंड़ित पिंड की सार न जानी।।
तूँ चमार पंड़ित सुन भाई, त्वचा चाम की उतारो भाई।।
सतगुरू सैन समझ जा भाई, दास रविदास कहै समझाई।। (13)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं पंड़ित सो पिडं की जाने, निर्मल हृदय वस्तु पहचाने।।
क्षमा नीर में करै स्नाना, मैल उतारे मान गुमाना।।
मन साधन की करते पूजा, और न जाने जग में दूजा।।
सत्य तिलक ही माथा सोहे, दुविधा, दुर्मति दोनों खोवे।।
दया जनेऊ गले जो राखै, पाँच तत्व का भेद जो भाखै।।
विष को छोड़ अमिरस खाय, नित-नित ही सत् कर्म कमाये।।
काया काशी खोजों भाई, दास रविदास कहे समझाई।। (14)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं शब्द गुरू ज्ञान उजाला, ज्ञान से तौडे़ जम का ताला।।
कोटि जन्म के पाप कमावे, सहस्र काल जीत घर आवै।।
चन्द्र लगन कर शब्द प्रकाशा, मेट दिया जम भूत का वासा।।
सत्य शब्द का देख तमाशा, कहै रविदास अमर घर बासा।। (15)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं आरती कँरू गुरू साई, तुम पूर्ण हो सब ठाई।।
तुम हो धूपक, दीप, अनेका, तुम ही घंटा नाद विवेका।।
तुम ठाकुर हो हम है दासा, पाती फूल सब में प्रकाशा।।
तुम जल, थल, पावक और पवना, तुम निरबैर किसी का भयना।।
तुम हो चन्द्र सूर्य प्रकाशा, सत्य शब्द गावै रविदासा।। (16)
सत्गुरू रविदास नमः-सत्नाम
ओहं सन्ध्या आरती साहेब तुम्हारी, दया करो जाँऊ बलिहारी।।
सत्य आरती भूमि पग धारी, सतयुग में सतनाम पुकारी।।
सत्य आरती शब्द मुख गावै, त्रेता में सप्त ऋषि नाम धराये ।।
आरती कर युग पंथ चलाये, द्वापर में चेता दास कहाये।।
आरती युग-युग में प्रकाशा, कलयुग केवल नाम रविदासा।।
दास रविदास आरती गांवै, सब सन्तों को शीश नवावै। (17)
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